Monday, April 13, 2009

लीतरे की मार ----- .


आज -कल जहाँ देखो वहां लीतरे की मारा -मारी है । होनी भी चाहिए । कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके लिए कहावतें भी बनी हैं - लातों के भूत , बातों से नही मानते । इसी तरह जूते के भूत भी , बातों से नही मानते । उनके लिए लीतरे की मार जादा शुभ कही जा सकती है । जूता तो किसी खास कंपनी का होता है , उसे पहनने वाला कभी पत्रकार होता है , कभी टीचर होता है और कभी नौसिखिया लेखक भी हो सकता है ।

पहले यह बता दूँ कि लीतरा क्या होता है ? जो लोग शहरों की चका -चौंध में यह नही देख पाते कि गाँव वाले चिलचिलाती धुप में , कभी मीलों ,कभी कोसों तक नागिन सी बलखाती पगडण्डी पर, किसी भी जानवर की खाल से बनाये , पनहा जैसी आक्रति वाले जूते पहन कर , अपनी पूरी उम्र भर तक , उसी एक जोड़ी जूते के साथ निकाल देते हैं । कीचड हो , बारिश हो या अधिक धूल हो, जान से प्यारी पनहीं को पैरों से निकाल कर हाथ में सुरक्षित कर लिया जाता है । इस तरह बरसों -बरस साथ -साथ जीते हैं इन्सान और पनहीं ।

वही पनहीं जब , उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुँच जाती है , तब जगह -जगह उसमें छेद निकल आते हैं । कई कई बार सिलाई करके गाँव का मोची भी तंग आ चुका होता है । ऐसी स्तिथि में पहुंचे उस जूते को कभी पनहा, कभी पनहीं और कभी लीतरे कहा जाता है ।

जब किसी इन्सान का क्रोध अपनी सीमा पार करने लगता है , तब पहली बात दिमाग में यही गूंजती है कि - साले !! इतने लीतरे पड़ेंगे कि दादी नानी सब याद आ जाएँगी । कहने का आशय है कि - अमरत्व को प्राप्त वह विशेष जूता अपना सम्पूर्ण जीवन जीने के बाद , दंड देने का अधिकारी बन जाता है । प्रताड़ना की चरमावस्था इसे ही कह सकते हैं । लीतरे की मार बड़ी शर्म वाली बात होती है , कोई हँसी -मजाक नही ।

अपराधी इतने अधिक धिक्कार का पात्र हो गया कि लीतरे खाने योग्य घोषित हो गया । इससे अधिक सामाजिक प्रताड़ना और क्या हो सकती है ? भारतीय परिवेश में लीतरे की यही कहानी है । बात -बात पर लीतरे ही इनाम में देने की प्रथा भी है ।

आज कल बड़ी मुद्दत के बाद यह लीतरे फ़िर चर्चा में आ गए हैं । गाँव -गाँव के लीतरे एकत्र करके , उसका हार तथाकथित भ्रष्ट बन्दे को पहना कर सिंहासनारूढ़ कर आरती उतर लेनी चाहिए , जिससे उसे अहसास हो कि कितने गाँव , कितने किसान , कितने गरीबों , कितने प्रभावितों और इंसानों के क्रोध , बेबसी , लाचारी और कानून की मरियादाओं के सम्मान की मजबूरी इसमें समाहित है ।

लीतरे खाना और खिलाना कोई आसन बात नही है , हजारों , करोड़ों इन्सान हर पल जाने कितने धुरंधरों को लीतरे मारते रहते हैं । कोई शब्दों के लीतरे मारता है , कोई भावों के । कोई कहानी रचता है , कोई पद्य रचता है । यहाँ लीतरे मारने का प्रशिक्षण सा चल रहा है । लेखनी की पैनी धार से मारे गए लीतरे सीधे जिगर के पार जाकर रुकते हैं , तभी तो कहा जाता है कि शब्द का नाद सम्पूर्ण ब्रह्मांड में प्रवाहित होता है , क्योंकि शब्द अमर हैं । साक्षात् मार -धाड तो क्षणिक प्रदूषण पैदा करती है । लीतरे मारने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए । जो शब्दों से अधिक कहाँ मिल सकती है । खूब मारो लीतरे चाहे दुनिया का राजा हो या महापापी ।

संभल जाओ , शासको !! नाइंसाफी , भेदभाव , राजनीति अब कुछ भी पनप नही पायेगा । जनता के योग बल से जिस मान को पाया है उसकी मरियादा को यदि लांघने का प्रयास करोगे तो यही जनता अब लीतरे का स्वाद चखा देगी ।

रेनू शर्मा ....

4 comments:

अजय कुमार झा said...

bahut khoob renu jee, jootaa prakran par aapne bhee ek naye angle se likh diya hai , achha laga padnaa.

नीरज गोस्वामी said...

रेनू जी बहुत सार्थक पोस्ट लिखी है आपने और ये शब्द लीतरा बहुत दिनों बाद पढने को मिला...हम राजस्थानी इस को खूब समझते हैं...
नीरज

डॉ .अनुराग said...

कई सालो से यहाँ है....हमें मालूम नहीं था इन्हें लीतरे कहते है जी

दिगम्बर नासवा said...

सटीक लिखा है, पर लीतरे के बारे में पता नहीं था, कहावत जरूर सुनी हुयी है...........
जूता पुराण नए अंदाज़ में लिखा है आपने