रेगिस्तान के किनारे बसा हमारा गाँव , जहाँ कच्ची सड़क के अलावा जब कभी बैलगाडियां निकला करतीं थीं । जब सरकारी बस आती तब , पूरा गाँव धूल से भर जाता क्योंकि रास्ते कच्चे ही थे । बाबा कहते थे कि विकास का काम चल रहा है । अब , बिजली आ जायेगी , पानी आ जाएगा और स्कूल खुल जाएगा । धीरे -धीरे बीस साल बीत गए सड़क तो बन गई , घरों में बिजली के लट्टू जल गए पर , पानी नही आ पाया । सड़कें काली नागिन सी बलखातीं रहीं , स्कूल के नाम पर पाँचवीं तक के बच्चों के लिए एक घर में क्लास चलती रहीं । कुछ साल तक मास्टर आते रहे , धीरे से बच्चे गायब हुए फ़िर मास्टर साब । फ़िर न स्कूल न ईमारत ही रही ।
घर से पाँच किलोमीटर दूर माँ ने दाखिला दिला दिया । पैदल ही दौड़ लगा दिया करते थे क्योंकि घर के काम से अच्छा था पढ़ना । बाबा कहते थे , अब तो लड़कियों को भी पढ़ना चाहिए । वरना शादी की मुश्किलें बढ़ जाएँगी । बुआ भी पढने जाती थी , उन्हें बस लेने आती थी , चाहे अनचाहे पढ़ना ही था । जब छटवीं क्लास में थी तब याद है , छब्बीस जनवरी को स्कूल में लड्डू बांटे जाते थे । थैलियों में लड्डू भरने का काम हम लोग ही करते थे , बहुत ही प्रतिष्ठा वाला काम था , लेकिन इतनी खुरापात चलती थी कि चार की जगह पाँच लड्डू भी रख देते थे , किसी थैली में तीन भी डाल देते थे । हम सब काम ख़त्म होने पर क्लास की पंक्ति में ही खड़े होते थे । छिपी हुई लड्डू की थैली जल्दवाजी में कमरे में ही छूट जाती थी , बाहर जाकर याद आता कि लड्डू तो कमरे में ही हैं फ़िर भागने कम भी कोई फायदा नही होता था क्योंकि चपरासी कमरा बंद कर चुका होता था । लड्डू की परात भी हट चुकी होती थी । हम परेशान होकर एक दूसरे का चेहरा देखते रह जाते । अपनी थैली खोलकर देखते उसमें भी तीन ही लड्डू होते । देखा हमारा भाग्य !! हम दूसरों के लिए चालाकी करते थे लेकिन सब हमारे साथ ही हो जाता था ।
ईश्वर ने हम सबको सबक सिखाया था कभी किसी के लिए ग़लत मत करो , बुरा मत सोचो , वरना सब हमारे साथ ही होगा । क्योकि छब्बीस जनवरी के लड्डू हमें खुशियों के साथ ही एक संस्कार देकर गए । आज मेरे बच्चे स्कूल जाते हैं उन्हें लड्डू तो नही मिलते लेकिन देश के प्रति ईमानदारी , सम्मान ,मरमिटने का जज्वा अवश्य मिलता है । हर साल मुझे लड्डू याद आते हैं जो कभी नही मिल पाए ।
रेनू .....
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