Thursday, September 4, 2008

गुरु तत्व आसान नहीं

आज जमाना गुरु शिष्य परम्परा की लाज रखने का नही रहा , वह दिन कुछ और थे जब डॉक्टर सर्वपल्ली राधा कृष्णन या पंडित हर प्रसाद जी शिक्षा जगत के जगमगाते चिराग हुआ करते थे । सफ़ेद चमकती धोती , लम्बी कमीज , उसके ऊपर लखनवी जैकेट , सर पर गाँधी टोपी , एक हाथ मई धोती की चुन्नट पकडे , ब्राह्मण कॉलेज के प्रिंसिपल पंडित हर प्रसाद जी जिस समय प्रांगन मै प्रवेश करते पूरा कॉलेज शांत पड़ जाता था । लगता ही नही था कि यहाँ हजारों बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । जब कॉलेज का राउंड लगते तब अनुपस्थित अध्यापक के स्थान पर स्वयम पढाना शुरू कर देते । हिंदी ,उर्दू ,संस्कृत ,अंग्रेजी और बंगला भाषा पर पूर्ण अधिकार था । हर विषय पर बात करना , बच्चों कि जिज्ञाषा शांत करना उनका परम कर्तव्य था ।


डॉक - राधा कृष्णन के बारे मै कौन नही जानता , आज वे नींव के पत्थर की तरह शिक्षक दिवस के रूप मै अमरता को प्राप्त हो गए हैं । अपने ज्ञान को विवेकपूर्ण तरीके से किसी और को बाँट देना कोई सहज किरिया नही है । इसके लिए समर्पण की हद को पर करना पड़ता है । तभी जीवन मै एक स्थान मिल पाता है ।


गुरु अपने शिष्य को किस तरीके से पढाता है या उसकी त्रुटियों के लिए क्या दंड देता है , इसका हिसाब प्राचीन माता पिता ने कभी नही रखा । , एक बार गुरुकुल मै छोड़ा , विस्वास और सम्मान के बीच किसी विचार को नही आने दिया । तभी तो विचारक कह गए -


गुरु गोबिंद दौऊ खड़े , काके लागूं पांय,


बलिहारी गुरु आपने , गोबिंद दियो बताय ।

आज कोई शिष्य सोच भी नही सकता की गुरु इतने पूज्य होतें हैं । शिक्षा अब योग नही रही , आध्यात्म नही रही , वह तो व्यापर हो गई है । जीवन भर का धन संचय शिक्षा पर ही न्योछावर हो जाता है । शिशु , बाल , किशोरवय शिक्षा को समर्पित करने के बाद भी कोई जरूरी नही कि

व्यक्ति सकुशल जीवन यापन कर सके । अनगिनत युवा जॉब के लिए भटक रहें हैं । शिक्षा के व्यवसाई कारन के कारन ही गुरु शिष्य परम्परा का यह हश्र हुआ है । गुरु और शिष्य दौनों धन की बात ही सोचतें हैं । इस हाथ ले उस हाथ दे जैसा घिनोना कम ही हो रहा है ।

स्कूलों मैं सल् भर के लिए प्रतिदिन के हिसाब से एक कलेंडर बना दिया जाता है , वही प्रक्रिया सालों तक चलती रहती है , कोई बदलाव नही होता । दो पाठ पूरे हुए तभी परीक्षा शुरू , नंबर दो , परिणाम बनाओ , फ़िर पढाओ ,दूसरी गति बिधियों पर भी ध्यान केंद्रित करो , सरकारी फरमान आ गया तो उसकी पूर्ति करो । साल भर इसी ढर्रे पर चलकर सिर्फ़ खाना पूर्ति होती रहती है ।

गुरुयों के बीच राजनीति भी होती रहती है , तथाकथित पड़े लिखे , शिक्षित गुरु जी नीचता की हद तक गिरने से नही चूकते । किसी ज्वलंत समस्या पर विचार करने के अतिरिक्त सब कुछ बुरा करते रहते हैं । इन हालातों मई गुरु का मान कैसे हो सकता है ? आज अनेकों संचार साधन उपलब्ध हैं , शिक्षा के लिए स्कूल जाने की आवश्यकता भी नही है , तब कैसा गुरु मान ?

कुल मिलकर कहा जा सकता है कि शिक्षा पध्यति को बदलने की परम आवश्यकता है , गुरुयों के ज्ञान को मापने की जरूरत है , जब तक हम शिक्षा की नींव मजबूत नहीं करेंगे , बेसिक सुबिधायें नहीं देंगे , कानून का पालन नहीं करेंगे , एक मनोचिकित्सक की नियुक्ति नहीं करेंगे , तब तक बच्चों के सम्पूरण विकास की बात कोई मायने नही रखती । माता - पिता को भी संतुलित होना चाहिए । तभी शिक्षा का उत्थान हो सकेगा ।

गुरु को भी अपनी मरियादयों का ध्यान रखना चाहिए । बाल मन तो कोरा कागज ही होता है , गुरु ही उस पर संस्कारों की ओलम लिखता है , आध्यात्म जगाता है , विज्ञानं का बिगुल जगाता है । शिष्यों का उत्साह बढाता है । गुरु सर्व्गुन्सम्पन्न एक ईश्वरीय चमत्कार होता है । गुरु पूजनीय है , वन्दनीय है ।

रेनू शर्मा ......

3 comments:

प्रवीण त्रिवेदी said...

ज्ञान व अनुभव से वंचित किसी अनजान यात्री के समान बालक शिक्षक रूपी प्रकाश स्तंभ के जरिये ही अपनी डगर फलीभूत करते हुए नजर आते हैं। एक शिक्षक ही वह धुरी होता है जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंर्तनिहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। एक अध्यापक ही प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उसकी नींव को मजबूत करते हैं तथा उनके सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरू ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। वहीं सर्वोतम शिक्षक वह होता है जो विद्यार्थियों में अधिक से अधिक जानने व प्रश्न करने की उत्सुकता एंव प्रेरणा पैदा करता है।

MANVINDER BHIMBER said...

bahut sunder likha hai ...man ko chu gaya hai..

Advocate Rashmi saurana said...

bhut sahi likha hai aapne. bhut hi badhiya lekh. jari rhe.