Wednesday, July 23, 2008

माँ

तेरे वजूद का साया,
छाने लगा हौले - हौले,
आदतें - संस्कार -व्यवहार,
नैतिकमूल्य चस्पा होते गए,
इश्तहार से मेरे ज़हन मै
भीतर से भिन्न जानती थी ,
स्वयम को पर ,
समय की परतों में,
पुरातात्त्विक धरोहर सी
तुम्हारी छाया
प्रतिबिम्बित है ,
रक्त विकार सा रोपित है,
मेरी संतान में,
आदतें -व्यवहार -मूल्य ,
अंकुरित जान पढ़ते हैं ...
यह श्रंखला अमर बेल सी
फेलती रहेगी,
शायद...
श्रिष्टि पर्यंत ,
माँ का साया
स्थायी रहेगा ,
पाठशाला की अध्यापिका सा ,
देश की पहचान सा,
वंश की उर्जा सा ॥
-रेणू शर्मा

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