Sunday, July 20, 2008

स्वपनलोक


छत के ऊपर ,
आसमान के पास ,
बादलों का डेरा है ,
लगता है ,
परियों का शहर ,
मेरी छत पर,
उतर रहा है ,
ऊँचे बादल की ,
गहरी रंगत के ऊपर ,
सुनहरी प्रकाश के साये में ,
नन्हा बादल ,
प्रतिबिम्बित भी डूबते ,
सूर्य की रौशनी से ,
देदीप्यमान हो ,
एक महल बना रहा है ,
जिसके ऊँचे नीचे ,
गुम्बद अटारियां ,
विशाल भवन ,
लंबे प्रांगन ,
दृश्यमान हो रहे हैं ,
मानो परियां समीपस्थ ,
गुफायों में ,
उत्सव मना रही हैं ,
मध्यम सूर्य की ,
तीक्षण किरणे ,
इन्द्रधनुषी रंगों से ,
बन्दनवार बना रहे हैं ,
सुरीला मंजर ,
परीलोक को और ,
पास ला रहा है ,
मेघों की बस्ती ,
ज़मी पर उतर रही है ,
पास परिंदे उड़कर ,
वहीं पहुँचना चाहते है ,
प्रकाश में डूबी ,
स्वपनलोक की ,
नगरी सा यह इन्द्रजाल ,
धीरे धीरे हवा के झोंकों से ,
घुल रहा है ,
बूंद बनकर मेरे वदन को ,
भिगो रहा है ,
दूर बादलों में ,
रचा जीवंत स्वपनलोक ,
हौले हौले मुझमें ,
समा रहा है ,
रोज बैठ जाती हूँ ,
अटारी पर ,
घटाओं को बुलाती हूँ ,
मेघदूत की यछनी सी ,
-रेणू शर्मा

No comments: