Sunday, July 20, 2008

फिर से


ताजे काते सूत से ,
सपने ,सरकने लगते हैं,
कतली पर एक ढेर सा ,
बुन जाता है,
लंबी पेंग भरता,
जब ,
जुलाहे तक पहुँचा ,
तो ,
सदियों पुराने ,
शीशम के कपाट पर ,
ताला लगा मिला ,
अरे ! अब क्या करूं ?
बेबस सा ,
मन के तराजू पर ,
मेहनत को तौलता ,
हताश हो चला था ,
तभी ,
चमकीला प्रकाश मेरे ,
इर्द-गिर्द बिखर गया ,
सरपट दौड़ते मन से मेरे पैर ,
टूटे पेड की डाली पर टिक गए ,
कैसे बुनूं सपने ?
आरज़ुओ की पोटली कैसे खोलूं ?
यहाँ तो सब ,
कपास हो गया !!
बैठा हूँ ,
उस बूढे के इंतज़ार में ,
जो ,
मुझे उर्जा बांटेगा ,
ले चलेगा वापस ,
रूपहेली राहों में ,
मेरी उर्जा को सजीव कर ,
बसा देगा मेरे आस पास ,
में फिरसे कातने लगूंगा ,
सपने और ,
ढूँढने लगूंगा जुलाहा ...
-रेणू शर्मा

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