Monday, July 21, 2014

मन

आज मन के बारे में बात करने को दिल चाह रहा है , भाषा और मन एक दूसरे के पूरक हैं , जब मन चंचल हो उठता है तो भाषागत विचार ही चलायमान और दृष्टिगत होते हैं।  व्यक्ति स्वछंद रूप से वाही देखता व् सोचता है जो वह चाहता है। व्यक्ति के भावों विचारों और मनोभावों में सांकेतिक भाषा का पूर्ण समावेश रहता है अत: हम कह सकते हैं कि मानव के जन्म के साथ -साथ ही भाषा का प्रादुर्भाव भी हुआ। समय -समय पर लिपिगत परिवर्तन होते गए ,जैसे -जैसे मानव ने मस्तिष्क की विराटता को चेतना की शक्ति के साथ विकसित किया या मस्तिष्क की चेतना को जाग्रत करने का प्रयास किया तभी एक नई भाषा का जन्म हुआ। यही कारण है कि आज विश्व में हजारों भाषाएँ और लिपियाँ हैं जो व्यक्ति ने अपनी चेतना के स्टार के आधार पर विकसित की हैं , इनमें संस्कृत भाषा आज भी सर्वोपरि भाषा है , मन के कई स्तर हो सकते हैं -उच्चतम, मध्यम और निम्नतम। मानव जिस स्तर पर विचार  करता है वह उसके मन का प्रकार होता है यदि व्यक्ति सकारात्मक , आध्यात्मिक ,सात्विक और समत्वपूर्ण विचार धारा रखता है तो वह मन उच्च स्तर का होता है , यदि व्यक्ति भौतिक ,रजोगुणात्मक और आत्मवत विचार रखता है तो वह मध्यम स्तर का मन होता है , लेकिन व्यक्ति नकारात्मक , नितांत सांसारिक , नास्तिक और असमान्य विचार रखता है वह , निम्न स्तर मन वाला व्यक्ति होता है।

मन तो एक ही है ,चेतना के स्तर से कई तरह का मान सकते हैं , पूर्ण चैतन्य व्यक्ति का मन ज्ञानात्मक मन कह सकते हैं। मन तो अकर्मण्य है , यह तो केवल मस्तिष्क की आज्ञा का पालन करता है जबकि हम कहते हैं कि '' मन ही नहीं कर रहा काम करने को '' जबकि मस्तिष्क ही आज्ञा नहीं दे रहा , मन एक सन्देश वाहक का काम करता है। मन एक कल्पना युक्त विचार है , जिसमें स्मृति ,विचार और कल्पना सक्रीय रहते हैं। मन का स्थान हमारे जाग्रत मस्तिष्क मैं ही होता है , उसका सीधा सम्बन्ध हमारे नेत्रों से होता है तभी तो मन की चंचलता के साथ ही हमारे नेत्र भी चंचल हो उठते हैं। जो मन विचार करता है वही नेत्र देखने लगते हैं इसलिए मन मस्तिष्क का ही चेतन रूप है। अनुभव ही हमारे सामने स्मृति के रूप में स्पष्ट होता है या कह सकते हैं कि स्मृति अव्यक्त अनुभव का व्यक्त व्यवहार है।

मन की व्यापकता असीमित है , नेत्र इन्द्रियों के माध्यम से मन परोक्ष सापेक्ष सभी विचारों को देख सकता है और व्यक्ति को उसका अनुभव भी करा सकता है ,इसीको कल्पना लोक कहते हैं।  यहाँ तीनों कालों , सभी इन्द्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। मन की चंचलता पर अंकुश लगाने का कार्य चेतना का स्तर ही करता है जब मन स्थिर होने की कला में पारंगत होगा तब ज्ञानात्मक मन का विकास होगा।

मन मस्तिष्क का अभिन्न अंग है लेकिन चित्त इन्द्रिय का अंग है , मन का निर्णय सर्वोपरि नहीं होता बल्कि व्यक्ति की चेतना निर्णय करती है कि उसे क्या कार्य करना चाहिए क्या नहीं , मन तो निर्लिप्त रूप से वाहक का काम करता है। ब्रह्मचर्य का आशय है योग के माध्यम से चेतना की शक्ति को शनैः -शनैः उर्ध्व करना है। योगी जब अपनी चेतना को जाग्रत करता है तब , सारा आकाश शब्दमय लगता है तभी महान वैयाकरण भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म कहा है , शब्द शक्तिमान होते हैं। शब्द के सूक्ष्म , अतिसूक्ष्म और परमसूक्ष्म उच्चारण ध्येय के साथ व्यक्ति को जोड़ देते हैं। मन्त्र एक कवच हैं, उसे भेदकर बाहरी एक अणु भी भीतर प्रवेश नहीं पा सकता। शब्द सिद्धि के जाग्रत होने पर बोलने के साथ ही विद्युत तरंगें पैदा होती हैं , जब ध्वनि की तरंगें मन की तरंगों के साथ जुड़ जातीँ हैं तब तीव्र ऊर्जा पैदा होती है।

इस प्रकार हम मन के बारे में गहराई से जान पाते हैं, गहन अध्ययन का विषय है , हमारा मस्तिष्क ही केंद्र है ,मन का आधार है।

रेनू शर्मा  
  

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