Saturday, July 5, 2014

मुंशी प्रेम चन्द्र जी का गांव लमही

अभी मैं , टीवी  में चैनल बदल ही रही थी कि स्क्रीन पर लमही गांव के सीन दिखाई देने लगे , उत्तर -प्रदेश के पिछड़े गांव का सा नजारा दिखा ,बाहर एक पोखर थी जिसे तालाब बोला जा रहा था , सड़क के किनारे से कुछ सीढियाँ बनाकर घाट दिखने का प्रयास किया जा रहा था , किनारे से हरा -भरा था , हाँ , सड़क जरूर पक्की बनी थी जो गांव के भीतर तक जा रही थी।  गांव का नजारा प्रेम चन्द्र जी की कहानियों की याद दिल रहा था।

गांव के मुहाने पर चाय वाले की दुकान है जो , गांव के कुम्हार से सकोरे खरीदता है और उन्ही में दो चम्मच चाय नीबू की दो बून्द निचोड़कर दे देता है।  आपके सामने ही गन्दी अंगुलिया डुबोकर नीबू के बीज भी निकाल देता है ,बिलकुल देसी तरीका। मुंशी जी को छटवीं ,सातवीं कक्षा में पढ़ा था , तब सोच भी नहीं सकते थे कि उनका लमही गांव हम कभी देख भी पाएंगे।  2014 के चुनाव का बिगुल क्या बजा ,बनारस की यूर्निवर्सिटी से लेकर लमही तक पत्रकार महाशय दौड़ गए। रवीश की रिपोर्ट में लमही देखकर मैं, तो ,आश्चर्यचकित  हो गई। मेरे रोंगटे खड़े हो गए ऐसा लग रहा था मानो , कहीं से मुंशी जी आएंगे और बोल पड़ेंगे। उनकी कहानियां हर पल जीवंत हो रहीं थीं।

मैं , पत्रकार महाशय के साथ गांव के भीतर घुसकर हर गली , हर घर में झांक रही थी और हर घर में मुझे प्रेम चन्द्र जी रहते हुए से लग रहे थे। रवीश जी के साथ दुवे जी सूत्रधार का काम कर रहे थे लेकिन लग रहा था मानो मुंशी जी की आत्मा उनके भीतर समां गई है और वे ही मानो उनके साथ घूमकर अपना गांव दिखा रहे हैं। सरकार की अनदेखी , साहित्य प्रेमियों की अरुचि , गांव की पीढ़ियां भी उन्हें अब भुलाती सी लग रही थी।

गांव में तीन मंजिल के मकान तत्कालीन साहूकार की स्तिथि बयां कर रहे थे , साथ ही छपरे के नीचे बर्तन साफ करती महिला को देखकर लग रहा था कि छुआ -छूत अभी तक कायम है। मैं , समझ पा रही थी कि यही लमही गांव है ,जहाँ प्रेम चन्द्र जी ने हर घर की दास्ताँ को अपने ह्रदय में पिरोकर कलम के माध्यम से कागज पर लिखा होगा। आज तक, वहां की फिजां में मुंशी जी महकते हुए नज़र आये हालाँकि वहां के युवा उनकी रचनाओं से अनभिज्ञ दिखे लेकिन उनके खून में मुंशी जी समाये से लगे।

दुवे जी , तो मुंशी जी की रचनाओं का पाठ करते हुए ही भावुक हो जाते थे , उन्हें कोई कोना नहीं मिल रहा था वरना फफ़क -फफ़क कर रो लेते। राज्य सरकार ने प्रेम चन्द्र जी के कुछ फोटो , साहित्य ,गांव का मकान , चौबारा ,सब सहेजने का जिम्मा अब , लिया है लेकिनकाम की  मंथर गति और उत्कोच की लालसा स्पष्ट लक्षित हो रही थी। हार्दिक ख़ुशी हुई प्रेम चन्द्र जी का गांव देखकर , गवन , मानसरोवर , गोदान सब रचनाएँ स्मृति पटल पर चल चित्र सी छा गईं। लग रहा था ,उनका गांव अभी भी अधिक बदला नहीं है। वहां के युवा स्वयं को भले ही लमही प्रिंस समझते हों लेकिन संस्कार नहीं बदले हैं , चाहे वे लोग कॉलेज जाने लगे हों लेकिन एक भटकाव साफ नज़र आ रहा था।

मुंशी जी अभी अपने ही गांव में दुवे जी के रूप में विराजमान हैं और उनके साहित्य धरोहर को सँभालने का बीड़ा उठा रहे हैं। प्रेम चन्द्र जी उन्हें कंठस्थ हैं मानो जिंदगी की संध्या में किसी पवित्र ग्रन्थ का जाप करते हों। मुंशी जी के प्रसंग उनकी जवान से झरने से झरने लगते हैं। मेरी आत्मा अभिभूत हो गई ,रवीश जी को धन्यवाद के साथ ही  लमही लमही को नमन। कोई  दूसरा धनपतराय श्रीवास्तव अब पैदा नहीं हो सकता। हिंदी साहित्य के प्राण को नवजीवन अवश्य मिलना चाहिए।

रेनू शर्मा       

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