Tuesday, May 4, 2010

आवाज नहीं आती ---

माँ , के आँगन से विदा होकर आई थी , तब , सोचती थी , माँ , बाबा हर वख्त रमा- रमा चीखते रहते हैं , मेरे जाने के बाद इनकी आदत कैसे बदल पायेगी ? घर में इतने लोग हैं , पुन्नी है ,सोनू है , पीकल है फिर भी माँ , हर काम के लिए मुझे ही आवाज लगाती है कभी -कभी माँ से लड़ लिया करती थी , माँ , अपनी आदतें सुधर लो , रमा !!! जरा पत्ता उठाना , रमा !! जरा साबुन लाना , रमा !! जरा घी गरम करना , तब क्या होगा , जब मैं , इस घर मैं नहीं रहूंगी ?
माँ , एक लम्बी , ठंडी उसांस भारती और कह देती , तब का तब देखा जायेगा . उस कामचोर पुन्नी को आवाज लगा लिया करुँगी , नहीं तो पीकल है उसे बुला लिया करुँगी . उस पल माँ , का सूना सा चेहरा देखकर लगता था इस बात को सोचकर भी वे कितनी उदास हो गईं हैं फिर दूसरी बातों से उन्हें हंसा दिया करती थी . 
कई बार सोनू से पूंछा था सोना !! माँ , देखी तो नहीं होती , तुम लोग उनकी आवाज सुना करो , जब माँ ,बुलाती है तब ,दौड़कर जाया करो , सोनू इतनी सी बात पर उखड गई , हर समय अभी भी पहली आवाज रमा....की ही आती है फिर सारे घर के नाम बुला लेतीं हैं , जब उनकर सामने जाकर पूछो क्या काम है ? तब कहेंगी , अरे !! जा चाय बना ला ,बस कोई बात तो करनी नहीं , हमें भी तो पढना होता है , कब तक सामने खड़े रहें , लेकिन दीदी !!! एक बात बताऊँ , माँ ,अपना सब काम स्वयं करने लगीं हैं , जब कभी , पुन्नी को बुलातीं हैं तब , बाबा आकार कहते हैं - अरे !! शालो !! बेटियों को क्यों आवाज लगाती है मुझे बता क्या काम है और बाबा चाय बनाकर देते हैं जो काली और कडवी होती है .
मुझे थोड़ी तसल्ली हुई चलो माँ , अब व्यस्त रहने लगी हैं . जब मेरी गोद मेंएक नन्ही खिलखिलाने लगी तब मैं, खुश थी कि अब माँ , की तरह माना !! माना !! बुलाऊंगी और हुआ भी वही , माना बड़ी होती गई और मेरी रूह के हर कौने में माना बस गई , हर काम के लिए माना का नाम पुकारने लगी . कभी -कभी माना चिढ जाती थी जैसे मैं चिढ जाती थी जब माँ , मुझे बुलाती थी , लेकिन फिर सब ठीक हो जाता , हालाँकि सारा भी है लेकिन माना का नाम भी पहले आता है .
अब माना , दूसरे शहर चली गई है नौकरी जो करनी है , नाम पुकारने की आदत बदली नहीं है , सारा तो सुनती भी नहीं है , मेरे सारे काम अधूरे पड़े रहते हैं जो माना के साथ किया करती थी , ठंडी हवाओं में शहर की सड़कों पर सरपट गाड़ी दौड़ना , कभी दौने में भेलपूरी खाना , कॉफ़ी हॉउस में घंटों बैठकर उसकी बाहर खाने की आदत पर चिढचिढाना भला बुरा कहना , मेलों की दुकानों से फालतू समान घर लाना फिर हिसाब लगाना कि कितने पैसे बर्वाद किये .
अब , आवाज लगाना कम हो गया है , जैसे माँ का भी हुआ होगा , लेकिन हर पल दिल से आवाज तो आती ही रहती है , उसे कोई नहीं सुन पाता , माँ की भी आती होगी , उसे अब ,मैं , समझ पाती हूँ , सुन भी पाती हूँ ....
रेनू शर्मा ...

5 comments:

vandana gupta said...

माँ का अपनी बेटी से जो रिश्ता होता है उसे समझने के लिये माँ बनना जरूरी है और शायद हर औरत इस भावना को तभी समझ पाती है जब वो खुद माँ बनती है।

P.N. Subramanian said...

सुन्दर रचना. यह अनुभव अपने जीवन में हमने भी किया है.

दिलीप said...

sach kaha maa ka dard to maa hi samajh sakti hai...

Smart Indian said...

वक्त उम्र चुराता है तो अनुभव भी देता ही है. वैसे भी मातृत्व की भावना को माँ बने बिना कहाँ समझा जा सकता है!

hem pandey said...

माँ की ममता की मार्मिकता के साथ नारी की भावुकता भी दर्शाती है आपकी रचना.