Wednesday, February 17, 2010

बजट का बाजा

जब , पास की दुकान से चने -चिढ्वा लेने जाती थी , तब , पच्चीस पैसे से लेकर पचास पैसे तक हर बच्चा अपनी ख्वाहिश पूरी कर पाता था . वह समय कुछ और था , उस समय विज्ञानं उतना विकसित नहीं हुआ था . गाँव के लोगों का शहरी लोगों से रिश्ता यदा -कदा ही हो पाता था . यह , वही समय था , जब , रघुबीर शहर की अट्टालिकाओं के बीच खड़ा होकर ऊपर देखता तो , उसकी पगड़ी पीछे झूल जाती थी , और बिजली की चकाचौंध में उसका सर पिराने लगता था . गाँव से शहर आकार सिनेमाई पोस्टर देखकर बिरजू भखबाबरा हो जाता था . अब तो गाँव में विज्ञानं पहुँचते देर नहीं लगती
जब , हाई वे पर चौपाया वाहन सरपट दौड़ता है तब , गाँव की सड़कों के किनारे बसे घरों की दीवारों पर शीतल पेय पदार्थ , नामर्दी की दवा का जादू , डॉक्टर का पताफोटो सहित , सैल फोन की कंपनी का होर्डिंग घर की छत पर लगा मिल जाता है . सर पर गोबर का छाबड़ा लिए महिला से जब पूछा - घर की दीवार को आपने क्यों पोतने दिया ? तब सीधा सा जबाव मिला दीवार ख़राब हो रही थी , पैसा नहीं था , उन्होंने कहा हम ठीक कर देंगे ,तो रंग करने दिया . 
इतनी भूमिका बांधने का आशय यह है कि दिन पर दिन महगाई बढ़ रही है आज के युवा यकीन ही नहीं कर पाएंगे कि कभी शक्कर दस रुपये किलो मिलाती थी , टूअर की दाल आठ रुपये किलो और सोना एक सौ पचास रुपये दस ग्राम मिलता था . आज तो दुनियां उलट -पलट हो गई है . 
बजट शब्द की तह में जाने की तमन्ना कभी नहीं थी , भोजन  , घर , कपड़ा , बिजली ,पानी, शिक्षा दवाई सबका बजट लगाते -लगाते.महीना ही निकल जाता है  साल में एक बार बच्चों के कपडे की व्यवस्था हो पाती है . आज सिलाई तो कपडे से भी महँगी है . 
हर दिन बजट से शुरू होकर बजट पर ही ख़त्म होता है . फिर खबर आती है दाल के भाव बढ़ रहे हैं या कभी पैट्रोल के , कभी शराब के , लेकिन पीने वालों को कोई फरक ही नहीं पड़ता सीना चौड़ा करके खड़े हो जाते हैं और बढाओ पैसा हम तो पीयेंगे , 
पढाई के लिए बैंक पैसा देती है लेकिन सब कुछ आसान नहीं है दस से ग्यारह लाख कर्ज लेकर गरीब बच्चा कैसे पढ़ सकता है ? ऊपर से ऊट-पटांग फिल्में आकर बजट बिगाड देतीं हैं .धन उगाही का अच्छा जरिया है . लोगों को सम्मोहित करो और अपनी जेब भरो , फरारी खरीदने वाले लोग क्या जानें कि लोग पेट भरने के लिए क्या -क्या जातां नहीं करते, 
जब , करोड़ों रुपये बिस्तर के नीचे रखकर सोने वाले लोग जिन्दा हैं तब बजट की चिंता करना लाजमी है , गरीब हर हाल में मारा जाता है , जिन्दा रहने के लिए अब ,तो सांसों का बजट भी बिगड़ने लगा है . 
रेनू शर्मा .... 


4 comments:

Mithilesh dubey said...

जिन्दा रहने के लिए अब ,तो सांसों का बजट भी बिगड़ने लगा है

अब इसके आगे क्या कहूँ ।

Anonymous said...

"जिन्दा रहने के लिए अब तो सांसों का बजट भी बिगड़ने लगा है" जी हाँ. बहुत सटीक समसामयिक और सार्थक आलेख के माध्यम से आपने अपनी बात कही.

डिम्पल मल्होत्रा said...

sochne wali baat hai..जिन्दा रहने के लिए अब तो सांसों का बजट भी बिगड़ने लगा है"

दिगम्बर नासवा said...

सोचने को मजबूर करती है आपकी पोस्ट ... करोरों लोग जहाँ एक जून की रोटी नही कमा पाते वहाँ साँसों का बजट बनाना बहुत ज़रूरी होता है ...