Monday, October 5, 2009

पलायन

सबेरा हो गया था , हम एक बस्ती के पास पहुँच गए ,वहां शानो ने पानी पीया , बच्चों ने रोटी खायी और आगे चल दिए । सब डरे हुए थे ,कोई किसी से बात नही करना चाहता था , न जाने इन्सान के रूप में क्या निकल आए ? अभी करीब आठ किलोमीटर ही चले थे कि सड़क के किनारे एक औरत दर्द से करह रही थी , शायद उसे बच्चा होने वाला था , शानो की आँखें भर आईं, बोली - वीरा के अब्बा !! हम रुकें क्या ? मैं , निरुत्तर था क्योंकि सभी लोग अपनी जान और आबरू बचने के लिए भागे ही जा रहे थे । हम भी भयभीत थे । शानो मुंह में दुपट्टा ठूंस कर रो पड़ी , औरत का दर्द एक औरत ही समझ सकती है , बेचारी तड़फ कर जान भी दे सकती है , हम क्या करें ? रुकने का मतलब था हम भी किसी मुसीबत में आ सकते हैं । हमें ख़ुद से ही शर्म आ रही थी , क्या करते ?
दोपहर होते -होते हम दर्रे के इलाके में आ गए , अगर सड़क को छोड़ा तो ,सीधे मौत के मुंह में जाना पक्का था ,आगे -पीछे गाडियां दौड़ रहीं थीं , जिसे जो साधन हाथ लगा उसी से भाग रहा था , कितने लोगों के सामने गुहार लगाई, बच्चों को ही बिठा लें , कोई तैयार नही हुआ , लोग कह रहे थे अभी बीस किलोमीटर और चलना होगा , पैरों में छले पड़ गए थे , शानो के पैर तो अकड़ गए थे , बच्चों के पैर सूज गए थे , चलते रहे , क्या करते ?
थोडी दूर पर ट्रकों का काफिला चला आ रहा था , तलाशी होने लगी , दिखाओ , क्या ले जा रहे हो ? हथियार तो नही हैं ? एक सैनिक शानो को देख रहा था , बुरखा उठाकर , हाथ मसल कर देख लिए , शानो की साँस भी नही चल रही थी , उसे डर था ,कहीं पोटली में रखे पैसे न निकल लें , पत्थर की मूरत सी खड़ी रही । ट्रक पर बिठाकर चल दे तो , हम क्या कर लेते , रोटियां बिखर गईं , बच्चों की आंखों में आंसू आ गए । अगर ,रोटी छीन ली तो ? हम लोग वहां से आजाद हो गए । पैरों में कपडे बाँध लिए थे । अकरम अभी भी हमारे साथ था । अब , हमें छोड़कर कहीं जा भी नही सकता था ।
वीरा और शानो बुखार में तपने लगे , लोग बता रहे थे गुरुद्वारा आने ही वाला है , गाड़ियों की कतारें दिखाई देने लगीं । औरतें और बच्चे सड़क के किनारे चादर तान रहे थे । हिम्मत बढ़ रही थी । बच्चों को एक किनारे से बिठाकर गुरूद्वारे की तरफ़ भाग लिया , वहां लंगर चल रहा था , जाकर पानी पी लिया और बच्चों के लिए चना पूडी लेकर आ गया , रात होने से पहले ही ,वहां बरांडे में बच्चों के लिए जगह मिल गई , ऑफिस के प्रबंधक बलवंत सिंह जी के पैर पकड़ लिए तो काम के बदले रात काटने को मिल गई , वहां के डॉक्टर के पास लम्बी कतार लगी थी , किसी तरह दवा मिल गई , हांफता हुआ में बच्चों के पास पहुँचा तो , वीरा बेहोश पड़ा था , साहब के पैर पकड़ लिए , मेरे बच्चे को बचा लो , डॉक्टर से कहकर बोतल चढवा दी , हमारी जमा पूँजी धीरे -धीरे ख़तम होने लगी , रात के दो बजे लंगर की कारसेवा में जाकर बर्तन साफ़ करने लगा ।
अकरम शानो का माथा सहला रहा था , वीरा को होश नही था , बाई सा !! हमारे ऊपर खुदा की नहमत थी जो , मेरे बच्चे जिन्दा रहे । हजारों की भीड़ में , हम भी तकलीफों का सामना कर रहे थे , बच्चों के कारण साहब ने वहीं रहने दिया । दिन रात काम करते, फ़िर रात को खाना मिल पाता । हर दिन शानो की आबरू को बचाना पड़ता । औरतों के सैलाब में गम होकर उसे भी साग -भाजी का काम करना पड़ता , बाई सा !! एक दिन अकरम कहीं चला गया , कह रहा था घर वालों को ढूढने गया है । किसी ने बताया ,एक ट्रक वाले के साथ चला गया है ।
आतंकियों के भय ने सबको मरकर जीना सिखा दिया है । घर से, बंजारे से, हम लोग, निकल पड़े हैं , अब , जाने कहाँ जीवन की शाम होगी ।
रेनू ....

5 comments:

आमीन said...

achha likha hai aapne

पवन चंदन said...

हां शाम होगी
लेकिन शाम ही तो है
फिर सुबह भी तो होगी
अगर धरा ने घूमना बंद न किया तो... और ये हो नहीं सकता, अच्‍छी रचना के लिए धन्‍यवाद
आइयेगा कभी इस लिंक को चटका लगा कर
http://chokhat.blogspot.com/

Mithilesh dubey said...

क्या बात है लाजवाब लिखा है आपने। बहुत-बहुत बधाई

दिगम्बर नासवा said...

वाह लाजवाब . कमाल का चल रहा है संस्मरण ..........

M VERMA said...

बहुत सुन्दर ढंग से आपने संस्मरण को अग्रसर किया है.