Tuesday, May 19, 2009

महाप्रयाण से भयभीत न हों


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्ममृतस्य च ।

तस्माद परिहयेअर्थे न त्वं शोचितुमहर्सी । ।

श्री मदभगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मृत्यु प्राप्त करने वाले का जन्म निश्चित है । तो हे अर्जुन !! तुम व्यर्थ की बातों को मत सोचो । इस नश्वर जगत की प्रकृति को समझाते हुए कृष्ण कहते हैं कि -

आब्र्ह्म्भुवानाल्लोका : पूंरावार्तिनोअर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विदधते । ।

हे अर्जुन !! ब्रह्मलोक तक सभी लोक पुनरावर्ती हैं , परन्तु कौन्तेय !! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नही होता ।

इस श्लोक का भावार्थ श्री मद्भगवद्गीता एक यौगिक व्याख्या में बताया गया है - जितने भी जीव इस सृष्टि में हैं उनका तबतक जन्म और पुनर्जन्म होता रहता है , जबतक कि वे उस अक्षर ब्रह्म काल चेतना को तत्व से नही जान पाते। जान लेने के बाद वे पुन : जन्म लेकर शारीरिक सीमाओं में सीमित नही होते । मृत्यु के समय जो व्यक्ति काल तत्व के प्रचंड तेज को योग साधना न करने के कारण नही जान पाए हैं , ऐसे सामान्य व्यक्तियों के हितार्थ मृत्यु के तुंरत बाद की कुछ स्थितियों का वर्णन किया जाता है । जिन्हें जानकर यदि सामान्य व्यक्ति स्वयम को मृत्यु के समय और उसके बाद निडर रख सके , तो वह भी जन्म बंधन से मुक्त हो जाता है ।

मृत्यु के समय जब श्वांस बंद हो रही होती है , तब मरने की घबराहट होने के साथ ही बहुत हल्का -हल्का सा लगने लगता है और ह्रदय गति बंद होने पर बहुत जोर का चक्कर आता है , सनसनाहट जैसी , खडखडाहट जैसी या घंटियों के बजने जैसी ध्वनि सुनाई देती है । इसी के साथ मरने वाले की चेतना उसके शरीर से बाहर आ जाती है । चक्कर का प्रवाह मानसिक विकास के आधार पर भौतिक समय के अनुसार एक या दो क्षणों से लेकर तीन चार दिन तक रहता है । जिस समय व्यक्ति की चेतना भौतिक शरीर से बाहर निकल रही होती है , उस समय उसे एक क्षणिक अनुभव काल के महातेज का होता है । पहले कभी अनुभव न होने के कारन साधारण व्यक्ति उससे भयभीत हो जाते हैं । इस क्षणिक अनुभव में ऐसा लगता है जैसे बहुत लंबे समय से अंधेरे कमरे में बंद व्यक्ति को हठात सूर्य के तेज प्रकाश में ले जाया गया हो । यदि इस अनुभव से व्यक्ति विचलित न हो और यह स्मरण रखे कि यही महान तेज मेरे शरीर को और इस सृष्टि को व्यक्त करने वाला है । तो वह उस तेज के साथ एकाकार कर सकता है । यदि व्यक्ति उस महान तेज से भयभीत होकर उससे बचने का प्रयास करता है तो वह तेज उसके सामने से अदृश्य हो जाता है । वह व्यक्ति स्वयम को शरीर से बाहर पाता है । उस समय उसकी चेतना कोई शारीरिक आधार न होने के कारन स्वयं को शून्यवत अनुभव करती है । वह समझ नही पाता कि उसकी मृत्यु हो चुकी है । वह अपने प्रियजनों को देखता है , उनसे बात करने की कोशिश करता है किंतु कोई उसकी बात नही सुन पाता । वह अपने शरीर की मृतक क्रियायें देख कर धीरे -धीरे समझता है कि वह मर चुका है । उस क्षण भी वह उस परम तेज का अनुभव करता है । इस बार वह तेज शुद्ध प्रकाश जैसा झिलमिलाता हुआ , दमकता सा और अत्यधिक चमक वाले सुनहरे रंग का विराट गोलाकार, जिसके बीच में गहरा नीला रंग दिखाई देता है , उस चैतन्य शून्यता का यही प्रत्यक्ष दर्शन होता है । उस महान ज्योति का दर्शन करते हुए मरा हुआ व्यक्ति उसके केन्द्र से गूंजते हुए महान अनहद नाद को सुनता है जिसकी ध्वनि उस समय हजारों बादलों के एक साथ गरजने जैसी सुनाई देती है । यदि निर्भय रहते हुए इस अनुभव के समय यह विचार किया जाय कि यह मेरा ही स्वरूप है और यही मेरी चेतना को व्यक्त करने वाला तेज है तो व्यक्ति उस तेज से एकाकार कर पाता है । जन्म के कठोर बंधन से मुक्त हो जाता है ।

इन अनुभवों के समय भयभीत हो जाने वाला व्यक्ति अपनी चेतना के स्तर के अनुरूप स्वर्ग या नरक का अनुभव करता है या बार -बार जन्म के बंधन में बंध जाता है । योगी व्यक्ति शरीर के रहते हुए ही इन अनुभवों को समझने के कारण मृत्यु के माध्यम से समस्त तेजों के तेज , काल के तेज के साथ एकाकार कर पाते हैं ।

इसलिए हे मानव !! स्वयं में विद्ध्य्मान तेज को पहचानो और महाप्रयाण के भय को निकाल डालो ।

रेनू शर्मा .....

1 comment:

विजय तिवारी " किसलय " said...

महा प्रयाण से भयभीत न हों , गीता पर लिखा गया आलेख यथार्थ के धरातल पर सटीक बैठा है.
- विजय