Sunday, March 15, 2009

काल कोठरी

अपराध एक ऐसी सामाजिक विक्रति है, जो छूत के रोग सा फैलकर कैंसर सा पसर गया है । पूरी पृथ्वी ही इस जाल में फंस गई है । वैसे तो युगों से पाप होते ही रहे हैं और मानवीय समाज के सूरमाओं ने इस प्रवृति को दूर करने के भरसक प्रयास किए , कभी पापी को प्राण दंड दिया , कभी अर्थ दंड , सामाजिक बहिस्कार किया , कभी जप , तप , होम , ध्यान , तीर्थ और जाने क्या -क्या प्रायश्चित कराये गए लेकिन तामसिक वृति दिन दूनी रात चौगुनी बढती ही गई ।
राजा , महाराजाओं , राजनीतिज्ञों , शासकों ने समय -समय पर कानून परिवर्तन कर बदलाव लाने की कोशिश की लेकिन कोई हल नही निकला । पहले धार्मिक नियमों का उलंघन पाप कहा जाता था , वही अब वैज्ञानिक युग में विधि का उलंघन अपराध हो गया है । मानव जीवन धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष के साथ ही साम , दाम ,दंड और भेद की प्रक्रिया से भी जुडा है । यदि पूरी दुनिया सत , रजऔर तम के बीच से सत पर चलती तो मोक्ष ही होता । तब धरती पर मायाजाल जैसी बातें बेमानी होतीं । सब ओर शान्ति होती । सम्पूर्ण विश्व हजारों तरह के अपराधों से घिरा हुआ है ।
दुनिया की अस्सी प्रतिशत आबादी किसी न किसी अपराध में लिप्त होती है । हर छोटा काम बिना उठा पटक के होना आसान नही है । हमारी सामाजिक व्यवस्था इस तरह लाद्खादा गई है जिस तरह किसी दुराचारी शासक को पदच्युत कर दिया जाता है । अपराध की बात हो रही है तो , घर से ही शुरू करते हैं । बच्चे घर में माता -पिता से , स्कूल में टीचर से झूंठ बोलते हैं , उन पर अंकुश लगाने का कोई असर नही होता , क्योंकि आधुनिक बच्चे सिर्फ़ अपनी इच्छा पूर्ति के किए ही झूंठ बोलते हैं । जेब खर्च अधिक से अधिक पाने की चाह रखते हैं । जब उनकी हसरतें आसानी से पूरी नही होतीं तब चोरी शुरू हो जाती है ।
हर नई आदत की पुनरावृत्ति होने पर अपराध का रूप ले लेती है । फ़िर शुरू हो जाती है एक नई फरमाइश ड्रिंक करना जो शौक से शुरू होकर एक व्यसन बन जाता है । तब व्यक्ति की नई राह शुरू हो जाती है जो आपराधिक दुनिया की ओर पहला मजबूत कदम साबित होता है । उम्र की जरूरतें मन , इन्द्रियों , भावनाओं से होकर शरीर तक फ़ैल जाती हैं । जिसका पहला शिकार घर में या आस -पास ही खोज लिया जाता है । काम और नशे का मेल हत्या जैसे जुर्म को भी करा देता है । धीरे -धीरे परिवार से रेंगता हुआ जुर्म का कीटानू पूरे समाज में फ़ैल जाता है । यही पाप है और यही अपराध है जो हम सबको पतन की राह पर ले जाता है ।
कहा जाता है कि अपराधी पैदा होते हैं , लेकिन सच तो यह है कि घर , परिवार , समाज , और माता- पिता ही व्यक्ति को अपराधी बना देते हैं । अब चाहे परिस्तिथियों को दोष दिया जाए , या धन हीनता को बहाना बनाया जाय, या बढती प्रतिस्पर्धाओं को दोषी माना जाय । या फ़िर आधुनिकता को अपराध का जन्म दाता माना जाय , लेकिन हम सब जानते हैं हमारे विचार , भावनाएं , क्रिया कलाप , जीवन शैली और दोस्त ही निर्धारित करते हैं कि हम अपराध करते रहेंगे या अच्छी जिंदगी बसर करेंगे । अगर धन अपराधों का बड़ा कारण होता तो फ़िर धनी आदमी क्यों हत्या , लूटपाट , मारधाड़ , आतंकवाद आदि में लिप्त होते हैं ।
धर्म स्थानों पर भी धन को लेकर झगडे हो जाते हैं , जब हमें एक जीवन जी कर मरना ही है तब यह मार काट , हत्या , धर्म समाज देश के नाम पर जिहाद फैलाना कहाँ तक उचित है ।
आज हर दिन एक नई स्पर्धा , उर्जा , नई तकनीक , पैदा हो रही है उसके साथ ही एक आपराधिक प्रणाली का भी उदय हो रहा है । पुरूष क्षेत्र में स्त्रियाँ दखल दे रहीं हैं , बराबरी का हक़ पाने के लिए औरतें भी अपराध की दुनिया की देहरी पर कदम रख रहीं हैं । कौन सा अपराध ऐसा है जहाँ , औरतें अपना हुनर नही दिखा रहीं हैं , जेब काटना , हत्या , लूटपाट , मारधाड़ , धोखा धडी , अपहरण , वैश्यावृत्ति आदि , हर क्षेत्र में औरतें अपना दुरपयोग करा रहीं हैं । चाहे विज्ञापन हो , फ़िल्म हो , राजनीति हो , सरकारी तंत्र हो , शिक्षा विभाग हो , कुछ भी हो हर जगह नारियों का शोषण होता ही रहता है । आधुनिकता की अंधी दौड़ में स्वयं ही स्वयम को झोंक रही है ।
ऐसी स्तिथि में हम समाज का क्या भविष्य देख सकते हैं , महिलाएं धन और ऐश्वर्य की चाह में तन , मन और धन को दांव पर लगाने में भी संकोच नही कर रही हैं । मानवीय आजादी का भरपूर दोहन किया जा रहा है । अपराध की दुनिया में साक्ष्य की कोई अहमियत नही रही है । हत्या करने के बाद भी कातिल जश्न मनाता रहता है । कानून के शिकंजे में फसे लोग भी सालों तक यही इंतजार करते हैं कि उन्हें किस अपराध की सजा दी गई है । कितनी ऐसी काल कोठरियां हैं जहाँ के रेत का एक -एक कण निरपराधों के आंसुओं के दर्द को बताता है । कहा जाता है कि यदि पूर्व जन्म में पाप किया हो तब भी सजा तो किसी भी समय मिल सकती है , तो हम कह सकते है कि निअप्रधि भी अपनी छूटी सजा काट रहे होंगे । मानवीय मनोदशा विक्रत हो रही है । सुधर के लिए दिए जाने वाला दंड भी उत्कोच के लोभ में अपराध करता हुआ दीखता है । सुधार गृह भी अपराधों की पाठशाला बन गए हैं । झुग्गियों के जाल में से राज नेता अपने लिए पिठ्ठू पैदा करता है । हर जुर्म के लिए स्कूल है । कोई दादा है , कोई स्वामी , कोई तेजा है ,कोई शाकाल । कलियुग में कहीं भी काल कोठरी नही होगी हर गली में एक शातिर घूमता मिल जाएगा ।
काल कोठरी अपनी मरियादायें भूल रहीं हैं आख़िर कब तक ...

रेनू शर्मा .....

3 comments:

संगीता पुरी said...

सटीक आलेख ... कहा जाता है कि अपराधी पैदा होते हैं , लेकिन सच तो यह है कि घर , परिवार , समाज , और माता- पिता ही व्यक्ति को अपराधी बना देते हैं ।

Harshad Jangla said...

Renuji
You have presented a good philosophy of society. Very nice article.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA

विक्रांत बेशर्मा said...

रेनू जी,

आपका आलेख बहुत ही अच्छा लगा ...आपकी चिंता भी जायज़ है ...हम अपनी संवेदना खोते जा रहे हैं,और बिना संवेदना के इंसान कुछ भी करने को तैयार हो जाता है,चाहे वो कितना बड़ा अपराध क्यों न हो !!!