Tuesday, December 2, 2008

मिक का तमाशा

सन १९ ८४ के २-३ दिसम्बर की आधी रात को मिक गैस ने जो कहर बरसाया था , उस कोई भी नहीं भुला सकता । बेक़सूर लोग मिक की चपेट मैं आए और उनके प्राण उड़ गए , जो ऊँचे ओहदों पर अफसर बैठे थे , वे परिवार सहित सुरक्षित स्थानों पर कूंच कर गए थे , शान्ति के बाद वापस आए थे , उन्हें नही पता कैसे लोगों ने उस गरल को आंखों के सहारे पीया था , कैसे नन्हे बच्चों ने अपनी सांसें बंद कर दीं थीं , कैसे कोई दुलहन सुहाग जोड़ा पहनने से पहले ही अर्थी से विदा हो गई । महीनों तक मरीजों का इलाज चलता रहा , और वे मरते रहे ।
जब , मिक से पीड़ित लोगों को सरकारी धन मिलने का समय आया , तब उस प्रसाद का सेवन बड़े अफसरों ने भरपूर किया , गरीब , लाचार , अपंग , लोग अपनी बारी का इंतजार ही करते रहे । अफसरों के पूरे परिवार ने धन की उगाही करना शुरू करदी , और आज तक कर रहे हैं ।
जाने कितने इन्सान इस दुनिया से चले गए , किसी को नही पता । कभी , सरकार को दोषी बताया गया , कभी मिक के सरगनाओं को । मुआवजा राशिः लेकर अमीर और अमीर बन गए पर , बीमारी वहीं की वहीं रही । इतने बरसों से रिसर्च हो रही है क्या निकला ? कुछ नही । हर तरह से लोगों ने मिक के नाम से लूट मचा दी है । अगर यही हाल रहा तो , जाने कितने मिक हादसे होते रहेंगे और लोग भीतर से खुश हो जायेंगे कियों कि बाद का फायदा तो बड़े लोगों का ही होना है ।
२४ बरस बाद अब तो , इंसानी कीमत को समझना चाहिए , एक जुट होकर किसी भी अमानवीय कृत्य के लिए सजा देनी ही चाहिए , चाहे वे बड़े अधिकारी ही क्यों न हों । आशा है , फ़िर कभी भी इस तरह के हादसे नही होंगे । इस कामना के साथ .......
रेनू शर्मा .........

1 comment:

Unknown said...

मुझे आज भी याद है जब मेरी भोपाल निवासी मौसी और मौसा जी अपनी दोनों बेटियों के साथ आधी रात को बदहवाश सागर आए हुए थे, में छोटा था सो कर उठा तो देखा की सारे रिश्तेदार घर में एकत्रित थे इतने सारे लोगों के वाबजूद घर में सन्नाटा था मौसा जी के आँखें लाल थी !बाद में मुझे सारा मामला समझ में आया ! मुशीबत छोटा बड़ा नही देखती सभी को अपनी चपेट में ले लेती है, मौसा जी के परिवार को भी मुआबजा मिला और आज भी मिलता है जबकि मेरे मौसा आर्थिक रूप से संपन्न है लेकिन ये भी सच है की उनका परिवार पीड़ित तो हुआ था इस दुर्घटना में..लेकिन मेरा मानना है की मौसा जी को मुआबजा नही लेना चाहिए था एक तो आप पहले से ही संपन्न है दुसरे बह उस समय जन प्रतिनिधि थे और वर्तमान सरकार में राज्य मंत्री {जो किसी के काम के नही है } जेसे पद पर है अगर आप अपना हर्जाना छोड़ देते तो शायद किसी हकदार और जरूरत मंद को ये राशिः प्राप्त हो रही होती ! मानवीय संवेदनाओ को शब्दों में पिरोकर स्वार्थ से दूषित अंतरात्माओं को धिक्कारना जरूरी है इस आन्दोलन में मेरा आपको समर्थन है ..बहुत अच्छा लिखा है ..बधाई !