Monday, July 21, 2014

अास्था और अपराध

भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है , विश्व में विशेष स्थान इसी भावना , सिद्धांत , आदर्श , संस्कृति और आस्था के कारण पाया है। जब कभी भारत में धार्मिक उत्सवों का आयोजन होता है ,तो पता ही नहीं चलता कि यह पर्व हिंदुयों का है या मुस्लिम भाइयों का या किसी और धर्म का , जबसे सावन लगता है कभी रक्षाबंधन , कभी गणपति स्थापना फिर श्राद्ध पक्ष और फिर दुर्गा उत्सव। इस बीच रोजे का पर्व मनाया जाता है , हर गली मोहल्ले में गणेशजी की स्थापना की जाती है , पांडाल और मंदिर में पूजा का सिलसिला जारी रहता है , पूर्ण मनोयोग से बड़े लोग भी क्षमा याचना के साथ दिन की शुरुआत करते हैं।

दस दिन तक पूरे समर्पण के साथ विसर्जन का समय आता है जो सामाजिक सहयोग के साथ पुण्य नदियों , ताल ,सरोवर या समुद्र में किया जाता है। भारतीय समाज में जातिगत भेद बनाने के लिए कोई स्थान नहीं है , इसी तरह देवी स्थापना भी होती है , सभी आराधक व्रत उपवास के साथ पूजा संपन्न करते हैं।  हर चौक चौराहे पर राम लीला  का आयोजन होता है , सारी रात उत्सव चलते रहते हैं , ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति ईश्वर के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं रहा है। गुजरात से चलकर गरवा पूरे भारत में फ़ैल गया , हर कोई डांडिया लेकर झूमता नज़र आता है , लोग आपसी सौहाद्र को और पुष्ट करते हैं। सभी व्यक्तियों के भीतर मानो दिव्यता समां गई हो , कभी नहीं लगता कि कोई भारतीय अपराध भी कर सकता है , एकत्व और समत्व के अभाव में ही अपराध संभव है। आस्तिकता में डूबे लोग भी अपराध करने में लगे रहते हैं। चोरी ,लूटपाट , हत्या , डकैती ,अपहरण ,व्यभिचार और धोखा जैसे पाप होते रहते हैं , क्या , धार्मिक वातावरण भी अपराधियों की मानसिकता को बदल नहीं पाता ?

हमारे धार्मिक आयोजन , आस्तिकता ,एकता ,धर्मनिरपेक्षता कोई भी आस्था अपराध को कम नहीं कर पाती ,प्रसार -प्रचार बढ़ने के साथ ही अपराध भी बढे हैं। रात्रिकालीन अपराध चोरी , जुआ , शराब खोरी , बलात्कार आदि अपराध अधिक हो रहे हैं।  गरवा महोत्सव के दौरान युवा लोग स्वछंद आचरण करते हुए मादक द्रव्यों का सेवन करने से भी नहीं हिचकते। माता -पिता चाहते हुए भी बच्चों को रोक नहीं पाते यदि न जाने दें तो १८ वीं सदी के लोग और यदि जाने दें तो आजाद ख्याल का टैग लगा दिया जाता है। एक ओर संस्कृति में आस्था है दूसरी ओर आस्था की चादर तले होते अपराध घर , परिवार और समाज को खोखला कर रहे हैं।

उत्सव अब व्यापारिक हो गए हैं , आस्था का व्यापारीकरण होते ही अपराध सर चढ़ने लगे हैं। तब मानना ही पड़ता है कि मानव जीवन पर्यन्त अपराध सक्रीय रहेंगे इन्हें मिटाया नहीं जा सकता , हाँ , कम अवश्य किया जा सकता है।

रेनू शर्मा  

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