Monday, July 28, 2014

आत्महत्या क्यों ?

श्री मदभगवद गीता में लिखा है -आत्मा अजर अमर है ,इसे न कोई मार सकता है ,न कोई जला सकता है। आत्मा एक चेतना पुंज है जो व्यक्त और अव्यक्त रह सकती है , आत्मा सत्य है , पवित्र है और शाश्वत विध्यमान है और भी बहुत कुछ।  भारत के हर व्यक्ति को यह घुट्टी में पिला दिया जाता है , संस्कृति और संस्कार एक दूसरे मैं समाये हैं , खेतों में काम करने वाला अनपढ़ व्यक्ति भी अज्ञानी नहीं है वह , भारतीय संस्कृति की रूह को जानता है। इसके साथ ही वे यह भी जानते हैं कि आत्महत्या करना पाप है फिर भी कर लेते हैं , मानव जीवन सर्व श्रेष्ठ है फिर भी , जीवन के संघर्षों से घबरा कर जीवन को नष्ट ही कर डालते हैं।

इस संसार में जीव योनि में मानव ही अपनी आत्मा के उत्थान के लिए आध्यात्मिक प्रयास करता है ,वाल्मीकि रामायण में बताये पुष्पक विमान का वैज्ञानिक प्रयोग ही आज हमें , हैलीकॉप्टर , जहाज और अन्य रूप में दिखाई देता है , मानव जीवन ही हमें ईश्वर के दर्शन कराता है जिसे हजारों रूपों में पूजा जाता है , अंतरिक्ष से लेकर आत्मा तक का ज्ञान हम मानव रूप में ही कर सकते हैं फिर क्यों , इंसान आत्महत्या करने पर विवश होता है , हम अपनी चेतना का स्तर क्यों नहीं सुधार पाते ?

मानव जीवन विविधताओं से भरा हुआ है , हर मानव के जीवन में स्तिथि भिन्न होती है कहा जाता है कि हर व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के अनुसार ही वर्तमान जन्म पाता है और इस जीवन के सुख -दुःख का अनुभव करता है , फिर हर व्यक्ति की चेतना का स्तर भी भिन्न होता है , उसकी निर्णय क्षमता भी भिन्न होती है , हमारी नैतिक और मानसिक चेतना की उच्चता जितनी होगी उसी के अनुरूप हमारा जीवन होगा। यदि हम कोई पाप कर्म करते हैं तो यही संसार दोखज है जहाँ बार -बार जन्म लेना पड़ता है और जीवन की उथल -पुथल को झेलना पड़ता है।

हमारे बुरे कर्म , गलत आदतें , बुरा साथ , अशिष्टता , गलत निर्णय , अज्ञानता ही व्यक्ति को गलत राह पर ले जाती है , जो व्यक्ति अविवेकी होते हैं , नकारात्मक सोचते हैं , आत्मविश्वास की कमी होती है , अहंकारी होते हैं , अतिमहत्वकांछी होते हैं वे लोग ही आत्महत्या जैसे आत्म घाती पाप को करनेवाले अपराधी होते हैं। उनके मस्तिष्क में आत्महत्या का विचार आया तो उसी पर सोचते रहेंगे और कुंठित होकर अपराध कर बैठते हैं। उन्हें कोई रिश्ता ,कोई दोस्ती ,कोई जिम्मेदारी समझ नहीं आती। विवेकशून्य ,एकाकी ,मानसिक व्याधि से ग्रसित व्यक्ति यह अपराध कर लेते हैं।

एक अटल सत्य यह भी है कि यदि साथ अच्छा हो तो , मृत्यु को भी टाला जा सकता है ,यही पुण्य का आदान -प्रदान होता है , कैसे हम बीमार व्यक्ति को अच्छे विचार , भावनाओं और सकारात्मकता की ओर ले जायँ ?मानव जीवन का अर्थ समझा सकें , हम एक दूसरे इंसान से किसी न किसी रूप से जुड़े रहते हैं फिर दूसरे की पीड़ा ,दुःख ,दर्द , आह ,व्यथा , मानसिक आघात को क्यों नहीं समझ पाते ? घर -परिवार के लोग थोड़ा समय दें , एकाकीपन दूर करें , योग ध्यान का रास्ता अपनाएं ,सदाचार को आत्मसात करें तो , शीघ्र ही बचाव संभव है। एक सर्वे से पता चला है कि व्यक्ति की क्रोधाग्नि इतनी प्रबल हो जाती है कि वह मरने के लिए जलना पसंद करता है ,यदि दुर्भाग्य से बच गए तो जीवन भर पश्चाताप की अग्नि में जलते ही रहना पड़ता है। सामाजिक , मानसिक प्रताणना झेलनी पड़ती है वो अलग। शिक्षित लोग पीड़ा रहित मृत्यु का चुनाव करते हैं ,कुछ लोग पीड़ा दायक स्तिथि को चुनते हैं उनकी क्रूरता और मानसिक असमान्यता का परिचय उसी से लग जाता है , इन स्तिथियों में से निकलने के लिए व्यक्ति को योग की अग्नि में अपने शरीर को तपाना चाहिए।

गलत आध्यात्मिक मार्ग भी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए सहायक हो सकते हैं इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिए , मृत्यु के प्रति आकर्षण भी एक कारण है ,वह पल भी , अनंत आनंद को देने वाला हो सकता है यदि मृत्यु स्वभाविक हो तो , कोई युवा जानबूझकर प्रयास करेगा तो आत्महत्या कहलायेगा जो अपराध है। उस अनुभव को जीवित रहते हुए ध्यान के माध्यम से पाया जा सकता है , संसार की हर समस्या का समाधान , हर हार की जीत , हर पीड़ा का निवारण हमारे ही पास है जरूरत है केवल मानसिक चेतना के विकास की , आत्मविश्वास की। जीवन एक पुष्प है इसे सुगन्धित बना रहने दें ,सद्मार्ग का अनुशीलन करें।

रेणुशर्मा 

Friday, July 25, 2014

भीड़ में एकाकी

पहाड़ी पर चारों तरफ बिजली की जगमगाहट हो रही है , ऐसा लग रहा है मानो आसमान के तारे उस पहाड़ी पर उतर आये हों , लयबद्ध हो जुगनुओं की तरह लुक छिपी खेल रहे हैं। नीचे सड़क पर हम चार पहिये की गाड़ी में सरपट दौड़ रहे हैं , जल्दी से उपर पहुंचना चाहते हैं , पहाड़ी का आकर्षण जैसे अपनी ओर खींच रहा है , लेकिन वसुधा जैसे कुछ देख ही नहीं पा रही है , जाने कहाँ , वीराने में घूम रही है उसे न सबके साथ होने का अहसास है और न इस बात का ज्ञान कि हम कहाँ जा रहे हैं , बस अपने ही ख्यालों में डूबी सब कुछ देख रही है , इतने सरे व्यक्ति हैं , सब आपस में बात कर रहे हैं , गानों की मधुर ध्वनि आनंद बढ़ा रही है , बच्चे मस्ती कर रहे हैं , लेकिन वसुधा सबके साथ हंसती हुई भी निराश है , हम सबसे कहीं दूर है , भीड़ में होते हुए भी अकेली है अपने भावों और विचारों के साथ है।

ऐसा एकाकीपन हर किसी के जीवन में कभी न कभी आता ही है , व्यक्ति को अपनी स्तिथि की अनुभूति भीड़ से अलग होने पर ही होती है , यह कोई मनो रोग नहीं है लेकिन मानसिक अस्वस्थता की शुरुआत कह सकते हैं , व्यक्ति जब किसी वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक दूरी या समीपता कर लेता है तब , बदले में मिले अपमान , उपेक्षा या कमी को व्यक्ति सहन नहीं कर पाता है और धीरे -धीरे मानसिक उथल-पुथल का शिकार हो जाता है , व्यक्ति एकाकी विचार शीलता की ओर अग्रसर हो जाता है।

कभी , व्यक्ति भीड़ भरे रास्ते , पार्क या स्टेशन पर सब लोगों से बचता , झुकता , मुस्कराता ,क्रोधित होता ,गुमसुम सा अपने विचारों में डूबा अपनी मंजिल की ओर चलता जाता है , रास्ते में कौन मिला , क्या बात हुई उसे कुछ भी याद नहीं रहता क्योंकि भीड़ में भी वह अकेला ही था। कभी , हम कोई काम कर रहे होते हैं लेकिन हमारा दिमाग कहीं और चला जाता है , मस्तिष्क कुछ और सोचने लगता है , हालाँकि हम अपना काम सुचारू रूप से कर रहे होते हैं उसी समय हम कुछ और भी सोच रहे होते हैं , जब , ध्यान भंग होता है तब ,समझ आता है कि हम एक साथ कई बातें सोच रहे थे , अत्यधिक आध्यात्मिक , संवेदनशील ,काल्पनिक ,विचारक ,कलाकार व्यक्ति अक्सर इस स्तिथि का शिकार हो जाते हैं , जहाँ ,वह व्यक्ति सबसे अलग हो जाता है वहीँ , कुछ क्रियाशील हो काम कर रहा होता है , व्यक्ति स्वयं को ध्यानावस्था में पहुंचा देता है जो किसी अन्य के वश का नहीं।

ऐसा अकेलापन जुड़ने का काम भी करता है जो , आत्मा से जोड़ता है , प्रकृति ,विचारों और कला से जुड़ने में सहायक है , हर पल इस अवस्था में रहना मानसिक अस्वस्थता होती है , व्यक्ति वास्तविक अवस्था में आना ही नहीं चाहता , कल्पनाओं में ही जीना चाहता है। कभी आनंद देता है ,कभी हताशा , निराशा को जन्म देता है , मन को नियंत्रित कर भीड़ में सबके साथ रमण करना चाहिए , संगीत , अच्छा भोजन , सज्जन व्यक्तियों का साथ व्यक्ति को नई ऊर्जा देता है।

अत्यधिक एकाकी जीवन जीने वाला व्यक्ति स्वयं से बातें करने लगता है , उसे लगता है जैसे उसका कोई नहीं , किस से अपनी बात कहे , भरोसा नहीं कर पाता किसी पर , दोस्ती का अभाव रहता है , सब लोग समझते हैं व्यक्ति पागल हो गया लेकिन ऐसा नहीं है , अधिक क्रोध में भी तो व्यक्ति स्वयं से ही बात करता है ,गलियां देता है ,धिक्कारता है , कोसता है इस तरह स्वयं को हल्का करता है। किसी व्यक्ति की हत्या करना ,मारना आदि विचार भी एकाकीपन की देन होते हैं , मस्तिष्क कुछ अन्य विचार को ग्रहण नहीं कर पाता ,व्यक्ति की सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है , यह स्तिथि भयानक है ,रोगी का उपचार कराना चाहिए। भीड़ में रहते हुय भी व्यक्ति यदि एकाकी होने लगे तो चेतना को जाग्रत करने का प्रयास करना चाहिए।

रेनू शर्मा 

Wednesday, July 23, 2014

चिरैया

बहुत पहले से सोचा करती थी कि लड़की इतनी लाचार क्यों होती है कि अपनी बात किसी से नहीं कह पाती चाहे वो उसकी माँ ही क्यों न हो , जब किशोर होती है तब , माँ -पिता , भाई -बहिन सबके साथ इतनी घुली -मिली रहती है कि किसी से दूर होने का सोच ही नहीं पाती ,जैसे जिंदगी एक दूसरे में पिरोकर माला बना दी गई हो ,  जहाँ एक भी मनका टूट नहीं सकता , बिखर नहीं सकता ,जिंदगी हाथ से रेत की तरह फिसलती है।  जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही ससुराल नाम का भूत सताने लगता है , ऐसा नहीं है कि कोई बैर -भाव हो जाने क्यों भारतीय समाज में ससुराल को हौवा बना दिया गया है। जहाँ , सास का डर , नन्द का रुतवा , जिठानी की ठसक को सँभालने की तयारी करनी होती है ,पति को देवता के रूप में एक सिंहासन पर बिठाया जाता है जिसके सामने लड़की को हर हाल में सलाम ठोकना ही है , तभी सामंजस्य हो पायेगा , जाने कैसे चलन हैं , शादी के बाद लड़की अपने ही माँ -पिता के लिए बेगानी हो जाती है , अति सम्बेदन शील रिश्ता हर व्यक्ति निभाता है।

शादी के बाद लड़की कितनी ही बार माँ के पास चली जाय कभी , उसकी तसल्ली की बात नहीं कही जाती ,सोच लेते हैं , आ जा रही है , रोना नहीं रो रही ,तो सब ठीक होगा , लड़की जीवन भर घुटती ही रहती है , कोई नहीं होता जो दो शब्द पूछे कि बीटा कोई तकलीफ तो नहीं , हम तुम्हारे साथ हैं , माँ ,तो हर हाल में रिश्तों को निभाने की ताकीत करती रहती है , उसे पता है हर घर में कुछ तो होता ही है , उसके लिए क्या बात करना , उधर पति घीरे -धीरे समझ जाता है नौकरी करती है तो , अच्छी बात है चार पैसे घर में आते हैं पति महाशय अपने शौक जीवित रख सकते हैं , घर में भौतिक साधन बटोरे जा सकते हैं , यदि घर में काम करने की ही नौकरी है तो , पत्नी एक अाया या महरी से अतिरिक्त कोई सम्मान नहीं पा सकती। बच्चे भी समझ जाते हैं कि माँ को इससे अधिक मान क्या देना , पति यदि शौक़ीन हैं तो , फिर क्या कहने , दुनिया जाये भाड़ में उन्हें बस अपने काम से मतलब।

स्त्री -पुरुष का रिश्ता शारीरिक रिश्ते से अधिक नहीं समझ आता , मानसिक भावनाएं तो जैसे कहीं खो जाती हैं , हालाँकि इस सबके विपरीत भी लोग होते हैं मैं , उसे नहीं नकार रही।  शराबी पति हो तो , पत्नी को हर रात घने जंगल में जैसे गुजारनी पड़ती है , कभी डर कि इसकी चिल्लाहट पड़ोसी न सुने ,बच्चे दुखी न हों , सामाजिक अपमान का भय सालता ही रहता है। पत्नी यदि काम से वंचित कर दे तो , रात भर गलियों का सिलसिला चलता रहता है , यदि पति हिंसक हुआ तो , हाथ चलाने से भी परहेज नहीं करेगा ,उस पल स्त्री पिंजरे में बंद किसी कबूतरी से कम नहीं होती , यह नज़ारा किसी मामूली परिवार का ही नहीं , एक पढ़े -लिखे परिवार का भी हो सकता है , भारतीय समाज में पढ़े -लिखे लोग ही इस तरह की नारकीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं ,पति को पता है कि भाग कर कहाँ जाएगी ? शारीरिक और मानसिक स्तर पर पूरी तरह से स्त्री को निचोड़ा जाता है। रोज मर्रा की बातों का जिक्र किसी से नहीं हो पाता क्योंकि आत्म सम्मान का भय बना रहता है।

क्या , एक परिवार की खुशियों का ध्यान रखना सिर्फ पत्नी का ही फर्ज है , अमर्यादित व्यवहार करना पति अपना अधिकार समझता है , इसमें पति के घर वाले भी अहम भूमिका निभाते हैं , या तो , पति घर की जिम्मेदारी से भागना चाहता है , घर का बंधन उसे रास नहीं आता , आजाद ख्याल होने के कारण सब कुछ पचड़े में पड़ना सा लगता होगा , व्यसन की पूर्ति चाहिए लेकिन आजादी के साथ। लेकिन इन विचारों से कब तक स्त्री घायल नहीं होगी ? स्त्री भी कुछ पलों का सुकून चाह सकती है , भारतीय समाज में तो यह संभव सा नहीं लगता , बेटियों को जन्म लेते ही बोझ समझा जाता है , हर पति यही कहता है कि सब बीवी बच्चों के लिए ही तो करते हैं , जबकि पति खुद लालच से घिरे रहते हैं , घर और बच्चे यदि सम्भले हैं तो पति के कारण यदि बिगड़े हैं तो , पत्नी के कारण। सारे इल्जाम स्त्रियों पर लगाये जाते हैं।

माँ -बाबा की चिरैया जिसे फुदकने से लेकर पंख आने तक सुरक्षित रखा गया , कभी आँगन में फुदकी तो लाड से गले लगा लिया , चिरैया है एक दिन उड़ जाएगी , कहकर अपना कलेजा शांत कर लिया , बेटी के पैदा होते ही उससे दूर होने के लिए स्वयं को तैयार करते रहे। प्यार का ये सूखा रस जल्दी ही मिट जाता है। अब , उसे पैरों पर खड़ा होना सीखा दीजिये ,जिससे अपना नीड खुद बना सके , संघर्ष मय जिंदगी से निकालकर उसे स्वतंत्र आँगन दीजिये जहाँ वो , आजादी से उड़ सके। तब , चिरैया एक बेटी के रूप में साँस ले पायेगी।

रेनू शर्मा   

Monday, July 21, 2014

अास्था और अपराध

भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है , विश्व में विशेष स्थान इसी भावना , सिद्धांत , आदर्श , संस्कृति और आस्था के कारण पाया है। जब कभी भारत में धार्मिक उत्सवों का आयोजन होता है ,तो पता ही नहीं चलता कि यह पर्व हिंदुयों का है या मुस्लिम भाइयों का या किसी और धर्म का , जबसे सावन लगता है कभी रक्षाबंधन , कभी गणपति स्थापना फिर श्राद्ध पक्ष और फिर दुर्गा उत्सव। इस बीच रोजे का पर्व मनाया जाता है , हर गली मोहल्ले में गणेशजी की स्थापना की जाती है , पांडाल और मंदिर में पूजा का सिलसिला जारी रहता है , पूर्ण मनोयोग से बड़े लोग भी क्षमा याचना के साथ दिन की शुरुआत करते हैं।

दस दिन तक पूरे समर्पण के साथ विसर्जन का समय आता है जो सामाजिक सहयोग के साथ पुण्य नदियों , ताल ,सरोवर या समुद्र में किया जाता है। भारतीय समाज में जातिगत भेद बनाने के लिए कोई स्थान नहीं है , इसी तरह देवी स्थापना भी होती है , सभी आराधक व्रत उपवास के साथ पूजा संपन्न करते हैं।  हर चौक चौराहे पर राम लीला  का आयोजन होता है , सारी रात उत्सव चलते रहते हैं , ऐसा लगता है जैसे व्यक्ति ईश्वर के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं रहा है। गुजरात से चलकर गरवा पूरे भारत में फ़ैल गया , हर कोई डांडिया लेकर झूमता नज़र आता है , लोग आपसी सौहाद्र को और पुष्ट करते हैं। सभी व्यक्तियों के भीतर मानो दिव्यता समां गई हो , कभी नहीं लगता कि कोई भारतीय अपराध भी कर सकता है , एकत्व और समत्व के अभाव में ही अपराध संभव है। आस्तिकता में डूबे लोग भी अपराध करने में लगे रहते हैं। चोरी ,लूटपाट , हत्या , डकैती ,अपहरण ,व्यभिचार और धोखा जैसे पाप होते रहते हैं , क्या , धार्मिक वातावरण भी अपराधियों की मानसिकता को बदल नहीं पाता ?

हमारे धार्मिक आयोजन , आस्तिकता ,एकता ,धर्मनिरपेक्षता कोई भी आस्था अपराध को कम नहीं कर पाती ,प्रसार -प्रचार बढ़ने के साथ ही अपराध भी बढे हैं। रात्रिकालीन अपराध चोरी , जुआ , शराब खोरी , बलात्कार आदि अपराध अधिक हो रहे हैं।  गरवा महोत्सव के दौरान युवा लोग स्वछंद आचरण करते हुए मादक द्रव्यों का सेवन करने से भी नहीं हिचकते। माता -पिता चाहते हुए भी बच्चों को रोक नहीं पाते यदि न जाने दें तो १८ वीं सदी के लोग और यदि जाने दें तो आजाद ख्याल का टैग लगा दिया जाता है। एक ओर संस्कृति में आस्था है दूसरी ओर आस्था की चादर तले होते अपराध घर , परिवार और समाज को खोखला कर रहे हैं।

उत्सव अब व्यापारिक हो गए हैं , आस्था का व्यापारीकरण होते ही अपराध सर चढ़ने लगे हैं। तब मानना ही पड़ता है कि मानव जीवन पर्यन्त अपराध सक्रीय रहेंगे इन्हें मिटाया नहीं जा सकता , हाँ , कम अवश्य किया जा सकता है।

रेनू शर्मा  

मन

आज मन के बारे में बात करने को दिल चाह रहा है , भाषा और मन एक दूसरे के पूरक हैं , जब मन चंचल हो उठता है तो भाषागत विचार ही चलायमान और दृष्टिगत होते हैं।  व्यक्ति स्वछंद रूप से वाही देखता व् सोचता है जो वह चाहता है। व्यक्ति के भावों विचारों और मनोभावों में सांकेतिक भाषा का पूर्ण समावेश रहता है अत: हम कह सकते हैं कि मानव के जन्म के साथ -साथ ही भाषा का प्रादुर्भाव भी हुआ। समय -समय पर लिपिगत परिवर्तन होते गए ,जैसे -जैसे मानव ने मस्तिष्क की विराटता को चेतना की शक्ति के साथ विकसित किया या मस्तिष्क की चेतना को जाग्रत करने का प्रयास किया तभी एक नई भाषा का जन्म हुआ। यही कारण है कि आज विश्व में हजारों भाषाएँ और लिपियाँ हैं जो व्यक्ति ने अपनी चेतना के स्टार के आधार पर विकसित की हैं , इनमें संस्कृत भाषा आज भी सर्वोपरि भाषा है , मन के कई स्तर हो सकते हैं -उच्चतम, मध्यम और निम्नतम। मानव जिस स्तर पर विचार  करता है वह उसके मन का प्रकार होता है यदि व्यक्ति सकारात्मक , आध्यात्मिक ,सात्विक और समत्वपूर्ण विचार धारा रखता है तो वह मन उच्च स्तर का होता है , यदि व्यक्ति भौतिक ,रजोगुणात्मक और आत्मवत विचार रखता है तो वह मध्यम स्तर का मन होता है , लेकिन व्यक्ति नकारात्मक , नितांत सांसारिक , नास्तिक और असमान्य विचार रखता है वह , निम्न स्तर मन वाला व्यक्ति होता है।

मन तो एक ही है ,चेतना के स्तर से कई तरह का मान सकते हैं , पूर्ण चैतन्य व्यक्ति का मन ज्ञानात्मक मन कह सकते हैं। मन तो अकर्मण्य है , यह तो केवल मस्तिष्क की आज्ञा का पालन करता है जबकि हम कहते हैं कि '' मन ही नहीं कर रहा काम करने को '' जबकि मस्तिष्क ही आज्ञा नहीं दे रहा , मन एक सन्देश वाहक का काम करता है। मन एक कल्पना युक्त विचार है , जिसमें स्मृति ,विचार और कल्पना सक्रीय रहते हैं। मन का स्थान हमारे जाग्रत मस्तिष्क मैं ही होता है , उसका सीधा सम्बन्ध हमारे नेत्रों से होता है तभी तो मन की चंचलता के साथ ही हमारे नेत्र भी चंचल हो उठते हैं। जो मन विचार करता है वही नेत्र देखने लगते हैं इसलिए मन मस्तिष्क का ही चेतन रूप है। अनुभव ही हमारे सामने स्मृति के रूप में स्पष्ट होता है या कह सकते हैं कि स्मृति अव्यक्त अनुभव का व्यक्त व्यवहार है।

मन की व्यापकता असीमित है , नेत्र इन्द्रियों के माध्यम से मन परोक्ष सापेक्ष सभी विचारों को देख सकता है और व्यक्ति को उसका अनुभव भी करा सकता है ,इसीको कल्पना लोक कहते हैं।  यहाँ तीनों कालों , सभी इन्द्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। मन की चंचलता पर अंकुश लगाने का कार्य चेतना का स्तर ही करता है जब मन स्थिर होने की कला में पारंगत होगा तब ज्ञानात्मक मन का विकास होगा।

मन मस्तिष्क का अभिन्न अंग है लेकिन चित्त इन्द्रिय का अंग है , मन का निर्णय सर्वोपरि नहीं होता बल्कि व्यक्ति की चेतना निर्णय करती है कि उसे क्या कार्य करना चाहिए क्या नहीं , मन तो निर्लिप्त रूप से वाहक का काम करता है। ब्रह्मचर्य का आशय है योग के माध्यम से चेतना की शक्ति को शनैः -शनैः उर्ध्व करना है। योगी जब अपनी चेतना को जाग्रत करता है तब , सारा आकाश शब्दमय लगता है तभी महान वैयाकरण भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म कहा है , शब्द शक्तिमान होते हैं। शब्द के सूक्ष्म , अतिसूक्ष्म और परमसूक्ष्म उच्चारण ध्येय के साथ व्यक्ति को जोड़ देते हैं। मन्त्र एक कवच हैं, उसे भेदकर बाहरी एक अणु भी भीतर प्रवेश नहीं पा सकता। शब्द सिद्धि के जाग्रत होने पर बोलने के साथ ही विद्युत तरंगें पैदा होती हैं , जब ध्वनि की तरंगें मन की तरंगों के साथ जुड़ जातीँ हैं तब तीव्र ऊर्जा पैदा होती है।

इस प्रकार हम मन के बारे में गहराई से जान पाते हैं, गहन अध्ययन का विषय है , हमारा मस्तिष्क ही केंद्र है ,मन का आधार है।

रेनू शर्मा  
  

Monday, July 7, 2014

अम्मा का बीजना

सत्तर के दशक में बाबा और दादी घर के आँगन से लेकर बैठक तक अपनी उपस्तिथि दर्ज कराते रहते थे , बाबा कभी कचहरी जाते तो , कभी कोर्ट ,उनके जी से जाने कितने जंजाल अटके हुए थे , कभी दूध लेन वाले सिब्बन मियां के बारे में पता चलता कि बाबू जी !! सिब्बन आपके खेत जबरदस्ती जोत रहा है ,कभी पता चलता अपने ही किसी परिवारी ने जमीन पर दखल दे दी। तीस चालीस के दशक में बाबा ने आस -पास सभी जातियों को रहने के लिए जगह दे दी थी , धीरे -धीरे पूरा गांव ही बस गया ,अब , सब सयाने हो गए हैं , खाली पड़ी जगह पर कब्ज़ा चालू हो गया है ,उन्हें समझते और समझाते रहे , नहीं माने तो मुक़्क़दमे लड़ते रहे लेकिन आज तक कुछ न हो सका।

दादी इन सब कामों में दखल नहीं देतीं थीं , मुझे याद है घर का सबसे पहला बड़ा कमरा हॉल कहलाता था दादी उसे पौरी कहती थी , उसमें दादी का बड़ा सा पलंग बिछा रहता था , एक तरफ बड़ा सा तखत बिछा था , दो कुर्सी थीँ लकड़ी की जो , जाने कितने वर्षों से सबका बोझ सह रहीं थीँ। दादी के सिरहाने की तरफ ऊपर जाने का रास्ता था , थोड़ा पश्चिम में बाबा की बैठक का दरवाजा खुलता था , सामने बड़ा सा दरवाजा था जो दो दरवाजों के साथ खुलता था , नक्काशीदार दरवाजा जिसमें भीतर सुरक्षा के लिए लकड़ी के बड़े -बड़े पत्ते लगे थे , तीन कुण्डियां थीँ। भीतर दरवाजे के पास ही एक कुण्डी में डोरी बंधी रहती थी , वहां एक आदमी जमीन पर उकड़ूँ बना बैठा रहता था और धीरे -धीरे डोरी को हिला ता रहता था। दादी की जब इच्छा होती बात करता वरना चुपचाप बीड़ी पी सकता था क्योंकि दादी खुद भी बीड़ी पी लेती थीँ।

ऊपर डोरी एक बड़े से बीजने से बंधी थी जो, दादी के पलंग के आस -पास हवा फैलाता था , उस पंखे का आकार करीब दो मीटर था , रंग -बिरंगे कपडे से बना था , उसमें सुन्दर डिजाइन बनी हुई थी ,एक बार दादी अपने पीहर गई थीँ तो उनकी भाभी ने उन्हें गिफ्ट में बीजना दिया था। तब से उसको चलाने के लिए एक बाँदा रख लिया था ,वेतन के रूप में भर पेट खाना और सेर भर अनाज। हम सब उस पंखे की हवा मैं जाकर सोते थे कभी जब हरी शंकर हवाबाज नहीं आता तब , हमारी ड्यूटी होती थी बीजना हिलाने की , वरना दादी छोटे पंखे से खुद की ही हवा कर लेती थी , तब , सब उनके पलंग पर घुस जाते अम्मा !! हमारी हवा करो , दादी कई घंटों तक पंखा हिलाती रहती।

जब भी कोई दादी से मिलने आता , तब दादी उसे अनाज भरकर दे रही होती या कपडे देती रहती , शाम होते ही चबूतरे पर दूसरा पलंग बिछ जाता , पानी का छिड़काव हो जाता , दादी अपना हुक्का लेकर विराजमान हो जातीँ। गांव की महिलाएं अक्सर दादी से मिलने आया करतीँ थीँ , पूरे गांव की खोज खबर उन तक पहुँच जाती थी ,दादी !! बाबा को उलाहने मारा करती थी अरे !! जिंदगी भर इसी कचहरी में लगे रहिये , बिटिया बड़ी हो रही है ,ब्याह कर दो , मैं , मर जाउंगी तब करोगे , बाबा !! हर बार बोलते अगली साल कर देंगे और जाने कितने साल निकलते चले गए , अम्मा को पेट की तकलीफ हुई और एक साल के भीतर ही अम्मा इस दुनियां से चली गईं।

बीजना अपनी जगह लटका रहा वर्षों तक , अब ,बिजली आ गई है , कभी जब दादी के पलंग पर बैठती तो ऊपर शांत लटके पंखे पर नज़रें अटक जातीँ ,बीजना उतर कर स्टोर में चला गया , चूहों ने कुतर लिया फिर जाने कहाँ चला गया ,एक भीनी सी स्मृति शेष है , दादी के साथ बीजना भी यादों में समाया है।

रेनू शर्मा    

Saturday, July 5, 2014

मुंशी प्रेम चन्द्र जी का गांव लमही

अभी मैं , टीवी  में चैनल बदल ही रही थी कि स्क्रीन पर लमही गांव के सीन दिखाई देने लगे , उत्तर -प्रदेश के पिछड़े गांव का सा नजारा दिखा ,बाहर एक पोखर थी जिसे तालाब बोला जा रहा था , सड़क के किनारे से कुछ सीढियाँ बनाकर घाट दिखने का प्रयास किया जा रहा था , किनारे से हरा -भरा था , हाँ , सड़क जरूर पक्की बनी थी जो गांव के भीतर तक जा रही थी।  गांव का नजारा प्रेम चन्द्र जी की कहानियों की याद दिल रहा था।

गांव के मुहाने पर चाय वाले की दुकान है जो , गांव के कुम्हार से सकोरे खरीदता है और उन्ही में दो चम्मच चाय नीबू की दो बून्द निचोड़कर दे देता है।  आपके सामने ही गन्दी अंगुलिया डुबोकर नीबू के बीज भी निकाल देता है ,बिलकुल देसी तरीका। मुंशी जी को छटवीं ,सातवीं कक्षा में पढ़ा था , तब सोच भी नहीं सकते थे कि उनका लमही गांव हम कभी देख भी पाएंगे।  2014 के चुनाव का बिगुल क्या बजा ,बनारस की यूर्निवर्सिटी से लेकर लमही तक पत्रकार महाशय दौड़ गए। रवीश की रिपोर्ट में लमही देखकर मैं, तो ,आश्चर्यचकित  हो गई। मेरे रोंगटे खड़े हो गए ऐसा लग रहा था मानो , कहीं से मुंशी जी आएंगे और बोल पड़ेंगे। उनकी कहानियां हर पल जीवंत हो रहीं थीं।

मैं , पत्रकार महाशय के साथ गांव के भीतर घुसकर हर गली , हर घर में झांक रही थी और हर घर में मुझे प्रेम चन्द्र जी रहते हुए से लग रहे थे। रवीश जी के साथ दुवे जी सूत्रधार का काम कर रहे थे लेकिन लग रहा था मानो मुंशी जी की आत्मा उनके भीतर समां गई है और वे ही मानो उनके साथ घूमकर अपना गांव दिखा रहे हैं। सरकार की अनदेखी , साहित्य प्रेमियों की अरुचि , गांव की पीढ़ियां भी उन्हें अब भुलाती सी लग रही थी।

गांव में तीन मंजिल के मकान तत्कालीन साहूकार की स्तिथि बयां कर रहे थे , साथ ही छपरे के नीचे बर्तन साफ करती महिला को देखकर लग रहा था कि छुआ -छूत अभी तक कायम है। मैं , समझ पा रही थी कि यही लमही गांव है ,जहाँ प्रेम चन्द्र जी ने हर घर की दास्ताँ को अपने ह्रदय में पिरोकर कलम के माध्यम से कागज पर लिखा होगा। आज तक, वहां की फिजां में मुंशी जी महकते हुए नज़र आये हालाँकि वहां के युवा उनकी रचनाओं से अनभिज्ञ दिखे लेकिन उनके खून में मुंशी जी समाये से लगे।

दुवे जी , तो मुंशी जी की रचनाओं का पाठ करते हुए ही भावुक हो जाते थे , उन्हें कोई कोना नहीं मिल रहा था वरना फफ़क -फफ़क कर रो लेते। राज्य सरकार ने प्रेम चन्द्र जी के कुछ फोटो , साहित्य ,गांव का मकान , चौबारा ,सब सहेजने का जिम्मा अब , लिया है लेकिनकाम की  मंथर गति और उत्कोच की लालसा स्पष्ट लक्षित हो रही थी। हार्दिक ख़ुशी हुई प्रेम चन्द्र जी का गांव देखकर , गवन , मानसरोवर , गोदान सब रचनाएँ स्मृति पटल पर चल चित्र सी छा गईं। लग रहा था ,उनका गांव अभी भी अधिक बदला नहीं है। वहां के युवा स्वयं को भले ही लमही प्रिंस समझते हों लेकिन संस्कार नहीं बदले हैं , चाहे वे लोग कॉलेज जाने लगे हों लेकिन एक भटकाव साफ नज़र आ रहा था।

मुंशी जी अभी अपने ही गांव में दुवे जी के रूप में विराजमान हैं और उनके साहित्य धरोहर को सँभालने का बीड़ा उठा रहे हैं। प्रेम चन्द्र जी उन्हें कंठस्थ हैं मानो जिंदगी की संध्या में किसी पवित्र ग्रन्थ का जाप करते हों। मुंशी जी के प्रसंग उनकी जवान से झरने से झरने लगते हैं। मेरी आत्मा अभिभूत हो गई ,रवीश जी को धन्यवाद के साथ ही  लमही लमही को नमन। कोई  दूसरा धनपतराय श्रीवास्तव अब पैदा नहीं हो सकता। हिंदी साहित्य के प्राण को नवजीवन अवश्य मिलना चाहिए।

रेनू शर्मा